भारतीय दर्शन और योग
भारतीय ऋषिओं ने जगत के रहस्य को छह कोणों से समझने की कोशिश की है। वे जानते थे कि मानव की सबसे बड़ी इच्छा दुख से छुटकारा है। वे इसके प्रति भी आश्वस्त थे कि इन सिद्धांतों के जरिये उन्होंने इसका निदान खोज लिया है। आइए देखें, ये दार्शनिक सिद्धांत क्या हैं और उनके प्रणेता कौन-कौन हैं।
न्याय : तर्क प्रधान इस प्रत्यक्ष विज्ञान के शुरुआत करने वाले अक्षपाद गौतम हैं। यहाँ न्याय से मतलब उस प्रक्रिया से है जिससे मनुष्य किसी नतीजे पर पहुँच सके - नीयते अनेन इति न्यायः ।
प्रत्येक ज्ञान के लिए चार चीजों का होना आवश्यक है -
1. प्रमाता अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने वाला। 2. प्रमेय अर्थात् जिसका ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट है। 3. ज्ञान और 4. प्रमाण अर्थात ज्ञान प्राप्त करने का साधन।
वैशेषिक दर्शन : महर्षि कणाद ने इस दार्शनिक मत द्वारा ऐसे धर्म की प्रतिष्ठा का ध्येय रखा है जो भौतिक जीवन को बेहतर बनाए और लोकोत्तर जीवन में मोक्ष का साधन हो।
'यतोम्युदय निश्रेयस सिद्धि : स धर्मः'
न्याय दर्शन जहाँ अंतर्जगत और ज्ञान की मीमांसा को प्रधानता देता है, वहीं वैशेषिक दर्शन बाह्य जगत की विस्तृत समीक्षा करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे अजर, अमर और अविकारी माना गया है।
न्याय और वैशेषिक दोनों ही दर्शन परमाणु से संसार की शुरुआत मानते हैं। इनके अनुसार सृष्टि रचना में परमाणु उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। इसके अनुसार जीवात्मा विभु और नित्य है तथा दुःखों का खत्म होना ही मोक्ष है।
समस्त वस्तुओं को कुल सात पदार्थों के अंतर्गत माना गया है -
1. द्रव्य, 2. गुण, 3. कर्म, 4. सामान्य, 5. विशेष, 6. समवाय, 7. अभाव।
मीमांसा : वेद के मुख्य दो भाग है - कर्मकांड और वेदांत। संहिता और ब्राह्मण में कर्मकांड का प्रतिपादन किया गया है तथा उपनिषद् एवं आरण्यक में ज्ञान का। मीमांसा दर्शन के आद्याचार्य जैमिनि ने इस कर्मकाण्ड को सिद्धांतबद्ध किया है।
इस दार्शनिक मत के अनुसार प्रतिपादित कर्मों के द्वारा ही मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है। इसके अनुसार कर्म तीन प्रकार के हैं - काम्य, निषिद्ध और नित्य। वास्तव में बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है।
मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हुए बहुदेववादी है। इसमें यज्ञादि कर्मों के परिणाम के लिए एक अदृश्य शक्ति की कल्पना की गई है, जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल देती है।
न्याय : तर्क प्रधान इस प्रत्यक्ष विज्ञान के शुरुआत करने वाले अक्षपाद गौतम हैं। यहाँ न्याय से मतलब उस प्रक्रिया से है जिससे मनुष्य किसी नतीजे पर पहुँच सके - नीयते अनेन इति न्यायः ।
प्रत्येक ज्ञान के लिए चार चीजों का होना आवश्यक है -
1. प्रमाता अर्थात् ज्ञान प्राप्त करने वाला। 2. प्रमेय अर्थात् जिसका ज्ञान प्राप्त करना अभीष्ट है। 3. ज्ञान और 4. प्रमाण अर्थात ज्ञान प्राप्त करने का साधन।
वैशेषिक दर्शन : महर्षि कणाद ने इस दार्शनिक मत द्वारा ऐसे धर्म की प्रतिष्ठा का ध्येय रखा है जो भौतिक जीवन को बेहतर बनाए और लोकोत्तर जीवन में मोक्ष का साधन हो।
'यतोम्युदय निश्रेयस सिद्धि : स धर्मः'
न्याय दर्शन जहाँ अंतर्जगत और ज्ञान की मीमांसा को प्रधानता देता है, वहीं वैशेषिक दर्शन बाह्य जगत की विस्तृत समीक्षा करता है। इसमें आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए इसे अजर, अमर और अविकारी माना गया है।
न्याय और वैशेषिक दोनों ही दर्शन परमाणु से संसार की शुरुआत मानते हैं। इनके अनुसार सृष्टि रचना में परमाणु उपादान कारण और ईश्वर निमित्त कारण है। इसके अनुसार जीवात्मा विभु और नित्य है तथा दुःखों का खत्म होना ही मोक्ष है।
समस्त वस्तुओं को कुल सात पदार्थों के अंतर्गत माना गया है -
1. द्रव्य, 2. गुण, 3. कर्म, 4. सामान्य, 5. विशेष, 6. समवाय, 7. अभाव।
मीमांसा : वेद के मुख्य दो भाग है - कर्मकांड और वेदांत। संहिता और ब्राह्मण में कर्मकांड का प्रतिपादन किया गया है तथा उपनिषद् एवं आरण्यक में ज्ञान का। मीमांसा दर्शन के आद्याचार्य जैमिनि ने इस कर्मकाण्ड को सिद्धांतबद्ध किया है।
इस दार्शनिक मत के अनुसार प्रतिपादित कर्मों के द्वारा ही मनुष्य अभीष्ट प्राप्त कर सकता है। इसके अनुसार कर्म तीन प्रकार के हैं - काम्य, निषिद्ध और नित्य। वास्तव में बिना कर्म के ईश्वर भी फल देने में समर्थ नहीं है।
मीमांसा दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हुए बहुदेववादी है। इसमें यज्ञादि कर्मों के परिणाम के लिए एक अदृश्य शक्ति की कल्पना की गई है, जो मनुष्य को शुभ और अशुभ फल देती है।
सांख्य : सच पूछा जाए तो यह एक द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार विश्व प्रपंच के प्रकृति और पुरुष दो मूल तत्व हैं। पुरुष चेतन तत्व है और प्रकृति जड़। इसके अनुसार जगत का उपादान तत्व प्रकृति है। सत्व, रज और तम आदि तीन गुण उसके अभिन्न अंग हैं। जब इन तीनों गुणों की साम्यावस्था भंग हो जाती है और उसके गुणों में क्षोम उत्पन्न होता है तब सृष्टि का आरंभ होता है।
प्रथमतः महतत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्राओं को मिलाकर सात तत्व उत्पन्न होते हैं। अहंकार का गुणों के साथ संयोग होने से ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन तथा आकाश इन पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है।
वेदांत : महर्षि वादरायण जो संभवतः वेदव्यास ही हैं, का 'ब्रह्मसूत्र' और उपनिषद वेदांत दर्शन के मूल स्रोत हैं। आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सूत्र, उपनिषद और श्रीमद्भगवद् गीता पर भाष्य लिख कर अद्वैत मत का जो प्रतिपादन किया उसका भारतीय दर्शन के विकास में इतना प्रभाव पड़ा है कि इन ग्रन्थों को ही ' प्रस्थान त्रयी''के नाम से जाना जाने लगा। वेदांत दर्शन निर्विकल्प, निरुपाधि और निर्विकार ब्रह्म को ही सत्य मानता है।
'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' इसके अनुसार जगत की उत्पत्ति ब्रह्म से ही होती है - 'जन्माद्यस्य यतः' (ब्रह्म सूत्र - 2), उत्पन्न होने के पश्चात जगत ब्रह्म में ही मौजूद रहता है और आखिरकार उसी में लीन हो जाता है। इसके अनुसार जगत की यथार्थ सत्ता नहीं है। सत्य रूप ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के कारण ही जगत सत्य प्रतीत होता है।
जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। अविधा से आच्छादित होने पर ही ब्रह्म जीवात्मा बनता है और अविधा का नाश होने पर वह उसमें तद्रूप होता है।
योग : महर्षि पतंजलि का 'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद। प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।
द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन - यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है। तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।
प्रथमतः महतत्त्व, अहंकार और पंच तन्मात्राओं को मिलाकर सात तत्व उत्पन्न होते हैं। अहंकार का गुणों के साथ संयोग होने से ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन तथा आकाश इन पाँच महाभूतों की उत्पत्ति होती है।
वेदांत : महर्षि वादरायण जो संभवतः वेदव्यास ही हैं, का 'ब्रह्मसूत्र' और उपनिषद वेदांत दर्शन के मूल स्रोत हैं। आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सूत्र, उपनिषद और श्रीमद्भगवद् गीता पर भाष्य लिख कर अद्वैत मत का जो प्रतिपादन किया उसका भारतीय दर्शन के विकास में इतना प्रभाव पड़ा है कि इन ग्रन्थों को ही ' प्रस्थान त्रयी''के नाम से जाना जाने लगा। वेदांत दर्शन निर्विकल्प, निरुपाधि और निर्विकार ब्रह्म को ही सत्य मानता है।
'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' इसके अनुसार जगत की उत्पत्ति ब्रह्म से ही होती है - 'जन्माद्यस्य यतः' (ब्रह्म सूत्र - 2), उत्पन्न होने के पश्चात जगत ब्रह्म में ही मौजूद रहता है और आखिरकार उसी में लीन हो जाता है। इसके अनुसार जगत की यथार्थ सत्ता नहीं है। सत्य रूप ब्रह्म के प्रतिबिम्ब के कारण ही जगत सत्य प्रतीत होता है।
जीवात्मा ब्रह्म से भिन्न नहीं है। अविधा से आच्छादित होने पर ही ब्रह्म जीवात्मा बनता है और अविधा का नाश होने पर वह उसमें तद्रूप होता है।
योग : महर्षि पतंजलि का 'योगसूत्र' योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है। योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद कहा गया है, में विभाजित है- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद। प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।
द्वितीय पाद में पाँच बहिरंग साधन - यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है। तृतीय पाद में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।
दूसरे ही सूत्र में योग की परिभाषा देते हुए पतंजलि कहते हैं - 'योगाश्चित्त वृत्तिनिरोधः'। अर्थात योग चित्त की वृत्तियों का संयमन है। चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए महर्षि पतंजलि ने द्वितीय और तृतीय पाद में जिस अष्टांग योग साधन का उपदेश दिया है, उसका संक्षिप्त परिचय निम्नानुसार है :-
1. यम : कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।
2. नियम : मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।
3. आसन : पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित 'हठयोग प्रतीपिका' 'घरेण्ड संहिता' तथा 'योगाशिखोपनिषद्' में विस्तार से वर्णन मिलता है।
4. प्राणायाम : योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
5. प्रत्याहार : इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
6. धारणा : चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।
7. ध्यान : जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
8. समाधि : यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधि को भी दो श्रेणियाँ हैं - सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
1. यम : कायिक, वाचिक तथा मानसिक इस संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय चोरी न करना, ब्रह्मचर्य जैसे अपरिग्रह आदि पाँच आचार विहित हैं। इनका पालन न करने से व्यक्ति का जीवन और समाज दोनों ही दुष्प्रभावित होते हैं।
2. नियम : मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है। इनके अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान का समावेश है। शौच में बाह्य तथा आन्तर दोनों ही प्रकार की शुद्धि समाविष्ट है।
3. आसन : पतंजलि ने स्थिर तथा सुखपूर्वक बैठने की क्रिया को आसन कहा है। परवर्ती विचारकों ने अनेक आसनों की कल्पना की है। वास्तव में आसन हठयोग का एक मुख्य विषय ही है। इनसे संबंधित 'हठयोग प्रतीपिका' 'घरेण्ड संहिता' तथा 'योगाशिखोपनिषद्' में विस्तार से वर्णन मिलता है।
4. प्राणायाम : योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी साधन और उनके जागरण के लिए किया जाने वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम मन की चंचलता और विक्षुब्धता पर विजय प्राप्त करने के लिए बहुत सहायक है।
5. प्रत्याहार : इंद्रियों को विषयों से हटाने का नाम ही प्रत्याहार है। इंद्रियाँ मनुष्य को बाह्यभिमुख किया करती हैं। प्रत्याहार के इस अभ्यास से साधक योग के लिए परम आवश्यक अन्तर्मुखिता की स्थिति प्राप्त करता है।
6. धारणा : चित्त को एक स्थान विशेष पर केंद्रित करना ही धारणा है।
7. ध्यान : जब ध्येय वस्तु का चिंतन करते हुए चित्त तद्रूप हो जाता है तो उसे ध्यान कहते हैं। पूर्ण ध्यान की स्थिति में किसी अन्य वस्तु का ज्ञान अथवा उसकी स्मृति चित्त में प्रविष्ट नहीं होती।
8. समाधि : यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।
समाधि को भी दो श्रेणियाँ हैं - सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। सम्प्रज्ञात समाधि वितर्क, विचार, आनंद और अस्मितानुगत होती है। असम्प्रज्ञात में सात्विक, राजस और तामस सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है।
नाम परिवर्तन और भाग्य
एक समय वह भी था जब लोग अपने नाम के बजाए काम पर अधिक ध्यान दिया करते थे, परंतु इस संबंध में लोगों की बदलती हुई प्रवृत्ति को देखकर लगता है कि अब उनके लिए नाम का महत्व पहले की अपेक्षा बहुत ज्यादा हो गया है और इसीलिए वे अपने पहले रखे गए नामों में परिवर्तन करने लगे हैं।
अब प्रश्न आता है कि लोगों को नाम बदलने की जरूरत क्यों पड़ती है! वास्तव में इस प्रश्न के कई पहलू हैं। नाम परिवर्तन के ज्यादातर मामलों में लड़कियाँ ही अपना नाम बदल रही होती हैं और इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि करीब-करीब सभी धर्मों में विवाह से पहले लड़कियों के नाम के साथ जहाँ पिता का उपनाम या कुलनाम (सरनेम) लगता है वहीं विवाह के उपरांत पति का कुलनाम लगने लगता है। ऐसे मामलों में सामान्यतः उनका उपनाम ही बदलता है। तथापि कुछ परिवारों में विवाह के बाद लड़की का नाम बदलने की परंपरा होती है।
कुछ मामलों में लोग इसलिए भी नाम बदलते हैं क्योंकि उनके नाम में पिता का नाम या उनका कुलनाम नहीं जुड़ा होता। शुरू में तो इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन बाद में बड़े होने पर अथवा जरूरत पड़ने पर उन्हें यह अनुभव होता है कि उनका कुलनाम भी नाम के साथ होना चाहिए। अतः लोग अपना नाम परिवर्तन कर लेते हैं।
अब प्रश्न आता है कि लोगों को नाम बदलने की जरूरत क्यों पड़ती है! वास्तव में इस प्रश्न के कई पहलू हैं। नाम परिवर्तन के ज्यादातर मामलों में लड़कियाँ ही अपना नाम बदल रही होती हैं और इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि करीब-करीब सभी धर्मों में विवाह से पहले लड़कियों के नाम के साथ जहाँ पिता का उपनाम या कुलनाम (सरनेम) लगता है वहीं विवाह के उपरांत पति का कुलनाम लगने लगता है। ऐसे मामलों में सामान्यतः उनका उपनाम ही बदलता है। तथापि कुछ परिवारों में विवाह के बाद लड़की का नाम बदलने की परंपरा होती है।
कुछ मामलों में लोग इसलिए भी नाम बदलते हैं क्योंकि उनके नाम में पिता का नाम या उनका कुलनाम नहीं जुड़ा होता। शुरू में तो इस बात पर ध्यान नहीं दिया जाता, लेकिन बाद में बड़े होने पर अथवा जरूरत पड़ने पर उन्हें यह अनुभव होता है कि उनका कुलनाम भी नाम के साथ होना चाहिए। अतः लोग अपना नाम परिवर्तन कर लेते हैं।
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कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बचपन में रखे गए पिंकी, पिंकू, मुन्ना, मुन्नी, पप्पू आदि जैसे बच्चों के प्यार के नाम ही जन्म प्रमाण पत्र या स्कूल के प्रमाण पत्रों में यह सोचकर दर्ज करवा दिए जाते हैं कि फिलहाल तो यही रहने देते हैं, कुछ समय बाद बदल देंगे, लेकिन समय बीतता रहता है और अभिभावक को नाम बदलना याद ही नहीं रहता। ऐसे में बड़े होने पर बच्चों को अपने ही नाम से शर्म आने लगती है। अतः इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिए भी लोग अपना नाम बदल देते हैं।
कई बार लोग किसी ज्योतिषी की सलाह पर भाग्य की दृष्टि से भी अपने नाम में परिवर्तन कर लेते हैं। ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ एस्ट्रोलॉजर्स सोसाइटी के अध्यक्ष अरुण कुमार बंसल इस बारे में जानकारी देते हैं कि ज्योतिष में नाम बहुत महत्वपूर्ण होता है। नाम वह होता है जिसे सुनकर व्यक्ति या पशु जाग जाए या मुड़कर देखने लगे। व्यक्ति का नाम बार-बार बोला जाता है, इसलिए उसका बहुत प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है।
बंसल के अनुसार 'ज्योतिष में नाम का केवल प्रथम अक्षर ही अधिक महत्वपूर्ण होता है, परंतु अंकशास्त्र में पूरे नाम की वर्तनी का महत्व होता है। लोग अपने मूलांक और भाग्यांक को ध्यान में रखते हुए नाम रखने का प्रयास करते हैं। यदि किसी का नाम इनके अनुरूप न हो तो वह अपना नाम बदलने की सोचता है। वैसे ज्योतिषीय दृष्टि से नाम बदलने का चलन ज्यादातर उच्च वर्ग के लोगों में ही अधिक देखा जाता है।'
ज्योतिषीय कारणों से लोग कभी तो अपना पूरा नाम ही बदल डालते हैं या कभी अपने पुराने नाम में ही थोड़ा बहुत हेरफेर अथवा वर्तनी में परिवर्तन कर देते हैं। ऐसे लोग नाम परिवर्तन करने के लिए कभी उसमें कुछ जोड़ते हैं तो कभी कुछ घटाते हैं। कभी-कभार लोग इसलिए भी नाम आंशिक परिवर्तन करते हैं क्योंकि उनके पुराने नाम की वर्तनी गलत होती है और जब उन्हें इस बात का ज्ञान होता है तो वे भी मानने लगते हैं कि गलत वर्तनी वाला नाम उनके व्यक्तित्व में बाधा डाल रहा है। इस प्रकार के मामलों में भी लोग अपना नाम बदल लेते हैं।
यूँ तो नाम रखना या उसमें परिवर्तन करना पूरी तरह से व्यक्तिगत होता है और कोई भी कभी भी अपना नाम परिवर्तन कर सकता है लेकिन जहाँ तक सरकारी दस्तावेजों, प्रमाण पत्रों, खातों आदि में नए नाम के अनुसार परिवर्तन करवाने की बात है तो इसके लिए अनिवार्य रूप से कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। नाम परिवर्तन के लिए व्यक्ति को इस संबंध में 'एफिडेविट' के साथ-साथ किन्हीं दो राष्ट्रीय समाचार पत्रों में अपने बारे में बताते हुए इस बात की जानकारी देनी पड़ती है।
वर्ष 2008 के ग्रहण व अंक ज्योतिष
ग्रह राजा को रंक और रंक को राजा बनाते हैं। सन् 2008 में एक पक्ष में दो बड़े खण्डग्रास सूर्य एवं चन्द्रग्रहण होंगे।
प्रथम ग्रहण सूर्यग्रहण
यह खण्डग्रासीय सूर्यग्रहण 1 अगस्त 2008 को दोपहर 3 बजकर 34 मिनट से प्रारंभ होकर मोक्ष 5 बजकर 55 मिनट तक होगा। यह ग्रहण पुष्य नक्षत्र एवं कर्क राशि में होगा। अतः कर्क, मेष, सिंह, धनु को अशुभ व मिथुन, वृश्चिक, मकर, मीन को मध्यम, वृषभ, कन्या, तुला एवं कुंभको शुभ रहेगा।
द्वितीय ग्रहण चन्द्रग्रहण
यह खण्डग्रासीय चन्द्रग्रहण 16/17 अगस्त की रात्रि को 1 बजकर 20 मिनट से प्रारंभ होकर रात्रि को 4 बजकर 25 मिनट पर मोक्ष होगा।
यह ग्रहण धनिष्ठा नक्षत्र एवं कुंभ राशि पर होने से कुंभ राशि के लिए विशेष अशुभ, वहीं मेष को व्यापार लाभ, सिंह को धनलाभ, वृश्चिक को राजकीय उन्नति, मीन को परिवार वृद्धि एवं लाभ के योग, मकर को अतिव्यय से कष्ट, कुंभ को स्वास्थ्य एवं पदहानि, मिथुन को संबंध विच्छेद, तुला को व्यापार कष्ट तथा वृषभ, कर्क, कन्या एवं धनु राशि को मिश्रित फलकारी सिद्ध होगा।
शनि, मंगल एवं राहु-केतु की स्थिति राजकीय अधिकारी एवं राजनेताओं के लिए शुभ नहीं है। वर्ष में दो बार राष्ट्रध्वज झुकने के योग हैं।
अंक ज्योतिष की दृष्टि से वार्षिक फल
जिनका जन्म 1, 10, 19, 28 तारीख को हुआ है, उन्हें मान-सम्मान एवं शासकीय लाभ प्राप्त होगा। यदि ये आयु के 1, 10, 19, 28, 37, 46, 55, 64, 73, 82वें वर्ष में चल रहे हैं तो श्रेष्ठ लाभ प्राप्त होंगे।
जिनका जन्म 2, 11, 20, 29 तारीख को हुआ है, उन्हें व्यापार में लाभ होगा। यदि ये आयु के 2, 11, 20, 29, 38, 47, 56, 65, 74, 83वें वर्ष में चल रहे हैं तो सम्मान प्राप्त होगा।
जिनका जन्म 3, 12, 21, 30 तारीख को हुआ है, उन्हें राजनीति से लाभ, शिक्षा में लाभ होगा। यदि ये आयु के 3, 12, 21, 30, 39, 48, 57, 66, 75, 84वें वर्ष में चल रहे हैं तो पदोन्नति प्राप्त होगी।
जिनका जन्म 4, 13, 23, 31 तारीख को हुआ है, उन्हें विवाह एवं परिवार से लाभ, नौकरी में पदोन्नति के योग हैं। यदि ये आयु के 4, 13, 33, 34, 40, 49, 58, 67, 76, 85वें वर्ष में चल रहे हैं तो शुभ फलों में वृद्धि होगी।
प्रथम ग्रहण सूर्यग्रहण
यह खण्डग्रासीय सूर्यग्रहण 1 अगस्त 2008 को दोपहर 3 बजकर 34 मिनट से प्रारंभ होकर मोक्ष 5 बजकर 55 मिनट तक होगा। यह ग्रहण पुष्य नक्षत्र एवं कर्क राशि में होगा। अतः कर्क, मेष, सिंह, धनु को अशुभ व मिथुन, वृश्चिक, मकर, मीन को मध्यम, वृषभ, कन्या, तुला एवं कुंभको शुभ रहेगा।
द्वितीय ग्रहण चन्द्रग्रहण
यह खण्डग्रासीय चन्द्रग्रहण 16/17 अगस्त की रात्रि को 1 बजकर 20 मिनट से प्रारंभ होकर रात्रि को 4 बजकर 25 मिनट पर मोक्ष होगा।
यह ग्रहण धनिष्ठा नक्षत्र एवं कुंभ राशि पर होने से कुंभ राशि के लिए विशेष अशुभ, वहीं मेष को व्यापार लाभ, सिंह को धनलाभ, वृश्चिक को राजकीय उन्नति, मीन को परिवार वृद्धि एवं लाभ के योग, मकर को अतिव्यय से कष्ट, कुंभ को स्वास्थ्य एवं पदहानि, मिथुन को संबंध विच्छेद, तुला को व्यापार कष्ट तथा वृषभ, कर्क, कन्या एवं धनु राशि को मिश्रित फलकारी सिद्ध होगा।
शनि, मंगल एवं राहु-केतु की स्थिति राजकीय अधिकारी एवं राजनेताओं के लिए शुभ नहीं है। वर्ष में दो बार राष्ट्रध्वज झुकने के योग हैं।
अंक ज्योतिष की दृष्टि से वार्षिक फल
जिनका जन्म 1, 10, 19, 28 तारीख को हुआ है, उन्हें मान-सम्मान एवं शासकीय लाभ प्राप्त होगा। यदि ये आयु के 1, 10, 19, 28, 37, 46, 55, 64, 73, 82वें वर्ष में चल रहे हैं तो श्रेष्ठ लाभ प्राप्त होंगे।
जिनका जन्म 2, 11, 20, 29 तारीख को हुआ है, उन्हें व्यापार में लाभ होगा। यदि ये आयु के 2, 11, 20, 29, 38, 47, 56, 65, 74, 83वें वर्ष में चल रहे हैं तो सम्मान प्राप्त होगा।
जिनका जन्म 3, 12, 21, 30 तारीख को हुआ है, उन्हें राजनीति से लाभ, शिक्षा में लाभ होगा। यदि ये आयु के 3, 12, 21, 30, 39, 48, 57, 66, 75, 84वें वर्ष में चल रहे हैं तो पदोन्नति प्राप्त होगी।
जिनका जन्म 4, 13, 23, 31 तारीख को हुआ है, उन्हें विवाह एवं परिवार से लाभ, नौकरी में पदोन्नति के योग हैं। यदि ये आयु के 4, 13, 33, 34, 40, 49, 58, 67, 76, 85वें वर्ष में चल रहे हैं तो शुभ फलों में वृद्धि होगी।
जिनका जन्म 5, 14, 23 तारीख को हुआ है उन्हें यात्रा तथा नवीन कार्यों से लाभ के योग हैं। यदि ये आयु के 5, 14, 23, 41, 50, 59, 77वें वर्ष में चल रहे हैं तो लाभ में वृद्धि के योग हैं।
जिनका जन्म 6, 15, 24 तारीख को हुआ है, उन्हें राजकीय एवं शारीरिक, पारिवारिक कष्ट के योग हैं। यदि ये आयु के 24, 33, 42, 51, 60वें वर्ष में चल रहे हैं तो अशुभ फल में वृद्धि के योग हैं।
जिनका जन्म 7, 16, 25 तारीख को हुआ है उन्हें संपत्ति प्राप्ति के योग हैं। यदि ये आयु के 25, 34, 43, 52, 61वें वर्ष में चल रहे हैं तो श्रेष्ठ संपत्ति लाभ के योग, विद्यार्थियों को सफलता प्राप्त होगी।
जिनका जन्म 8, 17, 26 तारीख को हुआ है, उन्हें कष्ट के योग। यदि ये आयु के 17, 26, 35, 44, 53, 62वें वर्ष में चल रहे हैं तो सावधानी रखें।
जिनका जन्म 9, 18, 27 तारीख को हुआ है, उन्हें मिश्रित फल प्राप्त होंगे। यदि ये आयु के 18, 27, 36, 45, 54वें वर्ष में चल रहे हैं तो लाभ प्राप्त होगा।
जिनका जन्म 6, 15, 24 तारीख को हुआ है, उन्हें राजकीय एवं शारीरिक, पारिवारिक कष्ट के योग हैं। यदि ये आयु के 24, 33, 42, 51, 60वें वर्ष में चल रहे हैं तो अशुभ फल में वृद्धि के योग हैं।
जिनका जन्म 7, 16, 25 तारीख को हुआ है उन्हें संपत्ति प्राप्ति के योग हैं। यदि ये आयु के 25, 34, 43, 52, 61वें वर्ष में चल रहे हैं तो श्रेष्ठ संपत्ति लाभ के योग, विद्यार्थियों को सफलता प्राप्त होगी।
जिनका जन्म 8, 17, 26 तारीख को हुआ है, उन्हें कष्ट के योग। यदि ये आयु के 17, 26, 35, 44, 53, 62वें वर्ष में चल रहे हैं तो सावधानी रखें।
जिनका जन्म 9, 18, 27 तारीख को हुआ है, उन्हें मिश्रित फल प्राप्त होंगे। यदि ये आयु के 18, 27, 36, 45, 54वें वर्ष में चल रहे हैं तो लाभ प्राप्त होगा।
नेत्र शक्ति से त्राटक साधना
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रत्न एवं प्राकृतिक चिकित्सा
चिकित्सा केवल दवाई से होना चाहिए यह बात प्राचीन मान्यता के खिलाफ ही है। औषधि तो हमारी जीवन शक्ति (रेजिस्टेंस पॉवर) को कम ही करती है। योग, प्राणायाम, स्वमूत्र चिकित्सा, मक्खन, मिश्री (धागेवाली), तुकमरी मिश्री (अत्तारवालों के पास उपलब्ध होती है), धातु- सोना, चाँदी, ताँबा तथा लोहे के पानी से सूर्य-रश्मि चिकित्सा पद्धति (रंगीन शीशियों के तेल एवं पानी से), लौंग तथा मिश्री से चिकित्सा- ऐसे अनेक सरलतम साधन हैं, जिनसे बिना दवाई के हमारे शरीर का उपचार हो सकता है।
आज भी गौमूत्र चिकित्सा, अंकुरित चने-मूँग तथा मैथी दाने भोजन में लेने से, अधिक पानी पीने से आदि ये सभी ऐसे प्रयोग हैं, जिनसे यथाशीघ्र ही लाभ होता है। एक-एक गमले में एक-एक मुठ्ठी गेहूँ छोड़कर एक-एक दिन छोड़कर सात गमलों में जुआरे बोए जाएँ। इन जुआरों के रस से टी.बी., कैंसर जैसी बीमारियों को भी दबाया जा सकता है।
इसी प्रकार हमारे ऋषि-मुनियों ने रत्नों से भी कई बीमारियों के उपचार ज्योतिषी शास्त्र में बताए हैं। ये हमारे देश की ज्योतिष विद्या का एक अद्भुत चमत्कार ही है।
आज भी गौमूत्र चिकित्सा, अंकुरित चने-मूँग तथा मैथी दाने भोजन में लेने से, अधिक पानी पीने से आदि ये सभी ऐसे प्रयोग हैं, जिनसे यथाशीघ्र ही लाभ होता है। एक-एक गमले में एक-एक मुठ्ठी गेहूँ छोड़कर एक-एक दिन छोड़कर सात गमलों में जुआरे बोए जाएँ। इन जुआरों के रस से टी.बी., कैंसर जैसी बीमारियों को भी दबाया जा सकता है।
इसी प्रकार हमारे ऋषि-मुनियों ने रत्नों से भी कई बीमारियों के उपचार ज्योतिषी शास्त्र में बताए हैं। ये हमारे देश की ज्योतिष विद्या का एक अद्भुत चमत्कार ही है।
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रत्नों में प्रमुख 9 ग्रह के ये रत्न प्रमुख हैं : सूर्य- माणिक, चंद्र-मोती, मंगल- मूँगा, बुध- पन्ना, गुरु- पुखराज, शुक्र- हीरा, शनि-नीलम, राहू- लहसुनिया, केतु- लाजावत। मेष, सिंह व धनु राशि वाले कोई भी नग पहनें तो चाँदी में पहनना जरूरी है क्योंकि चाँदी की तासीर ठंडी है।
इसी प्रकार कर्क, वृश्चिक, मीन, कुंभ इन राशि वालों को सोने में नग धारण करना चाहिए तथा मंगल का नग ताँबे में धारण करना चाहिए क्योंकि इन धातुओं की तासीर गरम है तथा राशियों की तासीर ठंडी है। इसके कारण इन तासीर वालों को जो शीत विकार होते हैं, उनको जल्दी ही लाभ होगा।
यदि शुद्ध रत्न खरीदने का सामर्थ्य नहीं हो तो उनकी जगह धातु को पानी अथवा तेल में उबाल कर एक लीटर पानी को उबालकर 250 ग्राम करके उस पानी को पीना भी लाभ देगा तथा उसके इसी प्रकार के तैयार किए हुए तेल से मालिश भी विशेष लाभप्रद सिद्ध होगी।
स्वास्थ्य उत्तम रखने के लिए यदि सामर्थ्य हो तो 12 महीने शरीर पर मालिश करके स्नान करना चाहिए अन्यथा शीत ऋतु में मालिश का सर्वाधिक महत्व है। धातु का लाभ 50 प्रतिशत होगा, रत्नों का लाभ शत-प्रतिशत होगा।
सर्वशक्ति सम्पन्न माँ बगलामुखी साधना
यह विद्या शत्रु का नाश करने में अद्भुत है, वहीं कोर्ट, कचहरी में, वाद-विवाद में भी विजय दिलाने में सक्षम है। इसकी साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है। उसके मुख का तेज इतना हो जाता है कि उससे आँखें मिलाने में भी व्यक्ति घबराता है। सामनेवाले विरोधियों को शांत करने में इस विद्या का अनेक राजनेता अपने ढंग से इस्तेमाल करते हैं। यदि इस विद्या का सदुपयोग किया जाए तो देशहित होगा।
मंत्र शक्ति का चमत्कार हजारों साल से होता आ रहा है। कोई भी मंत्र आबध या किलित नहीं है यानी बँधे हुए नहीं हैं। सभी मंत्र अपना कार्य करने में सक्षम हैं। मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो वह मंत्र निश्चित रूप से सफलता दिलाने में सक्षम होता है।
हम यहाँ पर सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली, कोर्ट में विजय दिलाने वाली, अपने विरोधियों का मुँह बंद करने वाली माँ बगलामुखी की आराधना का सही प्रस्तुतीकरण दे रहे हैं। हमारे पाठक इसका प्रयोग कर लाभ उठाने में समर्थ होंगे, ऐसी हमारी आशा है।
मंत्र शक्ति का चमत्कार हजारों साल से होता आ रहा है। कोई भी मंत्र आबध या किलित नहीं है यानी बँधे हुए नहीं हैं। सभी मंत्र अपना कार्य करने में सक्षम हैं। मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो वह मंत्र निश्चित रूप से सफलता दिलाने में सक्षम होता है।
हम यहाँ पर सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली, कोर्ट में विजय दिलाने वाली, अपने विरोधियों का मुँह बंद करने वाली माँ बगलामुखी की आराधना का सही प्रस्तुतीकरण दे रहे हैं। हमारे पाठक इसका प्रयोग कर लाभ उठाने में समर्थ होंगे, ऐसी हमारी आशा है।
इस साधना में विशेष सावधानियाँ रखने की आवश्यकता होती है जिसे हम यहाँ पर देना उचित समझते हैं। इस साधना को करने वाला साधक पूर्ण रूप से शुद्ध होकर (तन, मन, वचन) एक निश्चित समय पर पीले वस्त्र पहनकर व पीला आसन बिछाकर, पीले पुष्पों का प्रयोग कर, पीली (हल्दी) की 108 दानों की माला द्वारा मंत्रों का सही उच्चारण करते हुए कम से कम 11 माला का नित्य जाप 21 दिनों तक या कार्यसिद्ध होने तक करे या फिर नित्य 108 बार मंत्र जाप करने से भी आपको अभीष्ट सिद्ध की प्राप्ति होगी।
आँखों में तेज बढ़ेगा, आपकी ओर कोई निगाह नहीं मिला पाएगा एवं आपके सभी उचित कार्य सहज होते जाएँगे। खाने में पीला खाना व सोने के बिछौने को भी पीला रखना साधना काल में आवश्यक होता है वहीं नियम-संयम रखकर ब्रह्मचारीय होना भी आवश्यक है।
हमने उपर्युक्त सभी बारीकियाँ बता दी हैं। अब यहाँ पर हम इसकी संपूर्ण विधि बता रहे हैं। इस छत्तीस अक्षर के मंत्र का विनियोग ऋयादिन्यास, करन्यास, हृदयाविन्यास व मंत्र इस प्रकार है--
विनियोग
ऊँ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषि:
त्रिष्टुपछंद: श्री बगलामुखी देवता ह्मीं बीजंस्वाहा शक्ति: प्रणव: कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयार्थे जपे विनियोग:।
ऋष्यादि न्यास-नारद ऋषये नम: शिरसि, त्रिष्टुय छंद से नम: मुखे, बगलामुख्यै नम:, ह्मदि, ह्मीं बीजाय नम: गुहेय, स्वाहा शक्तये नम:, पादयो, प्रणव: कीलक्षम नम: सर्वांगे।
हृदयादि न्यास
ऊँ ह्मीं हृदयाय नम: बगलामुखी शिरसे स्वाहा, सर्वदुष्टानां शिरवायै वषट्, वाचं मुखं वदं स्तम्भ्य कवचाय हु, जिह्वां भीलय नेत्रत्रयास वैषट् बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा अष्टाय फट्।
ध्यान
मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेघां
सिंहासनो परिगतां परिपीत वर्णाम्।
पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी
देवीं भजामि घृत मुदग्र वैरिजिह्माम ।।
मंत्र इस प्रकार है-- ऊँ ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा।
मंत्र जाप लक्ष्य बनाकर किया जाए तो उसका दशांश होम करना चाहिए। जिसमें चने की दाल, तिल एवं शुद्ध घी का प्रयोग होना चाहिए एवं समिधा में आम की सूखी लकड़ी या पीपल की लकड़ी का भी प्रयोग कर सकते हैं। मंत्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर के करना चाहिए।
विनियोग
ऊँ अस्य श्री बगलामुखी मंत्रस्य नारद ऋषि:
त्रिष्टुपछंद: श्री बगलामुखी देवता ह्मीं बीजंस्वाहा शक्ति: प्रणव: कीलकं ममाभीष्ट सिद्धयार्थे जपे विनियोग:।
ऋष्यादि न्यास-नारद ऋषये नम: शिरसि, त्रिष्टुय छंद से नम: मुखे, बगलामुख्यै नम:, ह्मदि, ह्मीं बीजाय नम: गुहेय, स्वाहा शक्तये नम:, पादयो, प्रणव: कीलक्षम नम: सर्वांगे।
हृदयादि न्यास
ऊँ ह्मीं हृदयाय नम: बगलामुखी शिरसे स्वाहा, सर्वदुष्टानां शिरवायै वषट्, वाचं मुखं वदं स्तम्भ्य कवचाय हु, जिह्वां भीलय नेत्रत्रयास वैषट् बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा अष्टाय फट्।
ध्यान
मध्ये सुधाब्धि मणि मंडप रत्नवेघां
सिंहासनो परिगतां परिपीत वर्णाम्।
पीताम्बरा भरणमाल्य विभूषितांगी
देवीं भजामि घृत मुदग्र वैरिजिह्माम ।।
मंत्र इस प्रकार है-- ऊँ ह्मीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्मीं ऊँ स्वाहा।
मंत्र जाप लक्ष्य बनाकर किया जाए तो उसका दशांश होम करना चाहिए। जिसमें चने की दाल, तिल एवं शुद्ध घी का प्रयोग होना चाहिए एवं समिधा में आम की सूखी लकड़ी या पीपल की लकड़ी का भी प्रयोग कर सकते हैं। मंत्र जाप पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख कर के करना चाहिए।
शिव का धाम कैलाश-मानसरोवर |
जहाँ की यात्रा प्रदान करती है मोक्ष... |
धर्मयात्रा में इस बार हम आपको दर्शन करा रहे हैं मानसरोवर के। मानसरोवर वही पवित्र जगह है, जिसे शिव का धाम माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार मानसरोवर के पास स्थित कैलाश पर्वत में शिव-शंभु का धाम है। यही वह पावन जगह है, जहाँ शिव-शंभु विराजते हैं।
कैलाश पर्वत, 22,028 फीट ऊँचा एक पत्थर का पिरामिड, जिस पर सालभर बर्फ की सफेद चादर लिपटी रहती है। हर साल कैलाश-मानसरोवर की यात्रा करने, शिव-शंभु की आराधना करने, हजारों साधु-संत, श्रद्धालु, दार्शनिक यहाँ एकत्रित होते हैं, जिससे इस स्थान की पवित्रता और महत्ता काफी बढ़ जाती है।
मान्यता है कि यह पर्वत स्वयंभू है। कैलाश-मानसरोवर उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी सृष्टि है। इस अलौकिक जगह पर प्रकाश तरंगों और ध्वनि तरंगों का समागम होता है, जो ‘ॐ’ की प्रतिध्वनि करता है। इस पावन स्थल को भारतीय दर्शन के हृदय की उपमा दी जाती है, जिसमें भारतीय सभ्यता की झलक प्रतिबिंबित होती है। कैलाश पर्वत की तलछटी में कल्पवृक्ष लगा हुआ है। कैलाश पर्वत के दक्षिण भाग को नीलम, पूर्व भाग को क्रिस्टल, पश्चिम को रूबी और उत्तर को स्वर्ण रूप में माना जाता है।
मान्यता है कि यह पर्वत स्वयंभू है। कैलाश-मानसरोवर उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी सृष्टि है। इस अलौकिक जगह पर प्रकाश तरंगों और ध्वनि तरंगों का समागम होता है, जो ‘ॐ’ की प्रतिध्वनि करता है। इस पावन स्थल को भारतीय दर्शन के हृदय की उपमा दी जाती है, जिसमें भारतीय सभ्यता की झलक प्रतिबिंबित होती है। कैलाश पर्वत की तलछटी में कल्पवृक्ष लगा हुआ है। कैलाश पर्वत के दक्षिण भाग को नीलम, पूर्व भाग को क्रिस्टल, पश्चिम को रूबी और उत्तर को स्वर्ण रूप में माना जाता है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह जगह कुबेर की नगरी है। यहीं से महाविष्णु के करकमलों से निकलकर गंगा कैलाश पर्वत की चोटी पर गिरती है, जहाँ प्रभु शिव उन्हें अपनी जटाओं में भर धरती में निर्मल धारा के रूप में प्रवाहित करते हैं।
यह स्थान बौद्ध धर्मावलंबियों के सभी तीर्थ स्थानों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कैलाश पर स्थित बुद्ध भगवान के अलौकिक रूप ‘डेमचौक’ बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए पूजनीय है। वह बुद्ध के इस रूप को ‘धर्मपाल’ की संज्ञा भी देते हैं। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि इस स्थान पर आकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति होती है। वहीं जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ने भी यहीं निर्वाण लिया। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि गुरु नानक ने भी यहाँ ध्यान किया था।
यह स्थान बौद्ध धर्मावलंबियों के सभी तीर्थ स्थानों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। कैलाश पर स्थित बुद्ध भगवान के अलौकिक रूप ‘डेमचौक’ बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए पूजनीय है। वह बुद्ध के इस रूप को ‘धर्मपाल’ की संज्ञा भी देते हैं। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि इस स्थान पर आकर उन्हें निर्वाण की प्राप्ति होती है। वहीं जैन धर्म के पहले तीर्थंकर ने भी यहीं निर्वाण लिया। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि गुरु नानक ने भी यहाँ ध्यान किया था।
मानसरोवर झील से घिरा होना कैलाश पर्वत की धार्मिक महत्ता को और अधिक बढ़ाता है। प्राचीनकाल से विभिन्न धर्मों के लिए इस स्थान का विशेष महत्व है। इस स्थान से जुड़े विभिन्न मत और लोककथाएँ केवल एक ही सत्य को प्रदर्शित करती हैं, जो है सभी धर्मों की एकता।
मानसरोवर दर्शन
ऐसा माना जाता है कि महाराज मानधाता ने मानसरोवर झील की खोज की और कई वर्षों तक इसके किनारे तपस्या की थी, जो कि इन पर्वतों की तलहटी में स्थित है। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि इसके केंद्र में एक वृक्ष है, जिसके फलों के चिकित्सकीय गुण सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोगों का उपचार करने में सक्षम हैं।
मानसरोवर दर्शन
ऐसा माना जाता है कि महाराज मानधाता ने मानसरोवर झील की खोज की और कई वर्षों तक इसके किनारे तपस्या की थी, जो कि इन पर्वतों की तलहटी में स्थित है। बौद्ध धर्मावलंबियों का मानना है कि इसके केंद्र में एक वृक्ष है, जिसके फलों के चिकित्सकीय गुण सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोगों का उपचार करने में सक्षम हैं।
इस स्थान तक पहुँचने के लिए कुछ विशेष तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक है। जैसे इसकी ऊँचाई 3500 मीटर से भी अधिक है। यहाँ पर ऑक्सीजन की मात्रा काफी कम हो जाती है, जिससे सिरदर्द, साँस लेने में तकलीफ आदि परेशानियाँ प्रारंभ हो सकती हैं। इन परेशानियों की वजह शरीर को नए वातावरण का प्रभावित करना है।
भारत से मानस कैलाश कैसे पहुँचें?
१. भारत से सड़क मार्ग। भारत सरकार सड़क मार्ग द्वारा मानसरोवर यात्रा प्रबंधित करती है। यहाँ तक पहुँचने में करीब 28 से 30 दिनों तक का समय लगता है। यहाँ के लिए सीट की बुकिंग एडवांस भी हो सकती है और निर्धारित लोगों को ही ले जाया जाता है, जिसका चयन विदेश मंत्रालय द्वारा किया जाता है।
भारत से मानस कैलाश कैसे पहुँचें?
१. भारत से सड़क मार्ग। भारत सरकार सड़क मार्ग द्वारा मानसरोवर यात्रा प्रबंधित करती है। यहाँ तक पहुँचने में करीब 28 से 30 दिनों तक का समय लगता है। यहाँ के लिए सीट की बुकिंग एडवांस भी हो सकती है और निर्धारित लोगों को ही ले जाया जाता है, जिसका चयन विदेश मंत्रालय द्वारा किया जाता है।
२. वायु मार्ग। वायु मार्ग द्वारा काठमांडू तक पहुँचकर वहाँ से सड़क मार्ग द्वारा मानसरोवर झील तक जाया जा सकता है।
३. कैलाश तक जाने के लिए हेलिकॉप्टर की सुविधा भी ली जा सकती है। काठमांडू से नेपालगंज और नेपालगंज से सिमिकोट तक पहुँचकर, वहाँ से हिलसा तक हेलिकॉप्टर द्वारा पहुँचा जा सकता है। मानसरोवर तक पहुँचने के लिए लैंडक्रूजर का भी प्रयोग कर सकते हैं।
४. काठमांडू से लहासा के लिए ‘चाइना एयर’ वायुसेवा उपलब्ध है, जहाँ से तिब्बत के विभिन्न कस्बों - शिंगाटे, ग्यांतसे, लहात्से, प्रयाग पहुँचकर मानसरोवर जा सकते हैं।
३. कैलाश तक जाने के लिए हेलिकॉप्टर की सुविधा भी ली जा सकती है। काठमांडू से नेपालगंज और नेपालगंज से सिमिकोट तक पहुँचकर, वहाँ से हिलसा तक हेलिकॉप्टर द्वारा पहुँचा जा सकता है। मानसरोवर तक पहुँचने के लिए लैंडक्रूजर का भी प्रयोग कर सकते हैं।
४. काठमांडू से लहासा के लिए ‘चाइना एयर’ वायुसेवा उपलब्ध है, जहाँ से तिब्बत के विभिन्न कस्बों - शिंगाटे, ग्यांतसे, लहात्से, प्रयाग पहुँचकर मानसरोवर जा सकते हैं।
अजमेर की दरगाह शरीफ |
दीदार गरीब नवाज की मजार का |
दरगाह अजमेर शरीफ...एक ऐसा पाक-शफ्फाक नाम है जिसे सुनने मात्र से ही रूहानी सुकून मिलता है... अभी रमजान का माह चल रहा है...इस माह-ए-मुबारक में हर एक नेकी पर 70 गुना सवाब होता है। रमजानुल मुबारक में अजमेर शरीफ में हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह की मजार की जियारत कर दरूर-ओ-फातेहा पढ़ने की चाहत हर ख्वाजा के चाहने वाले की होती है, लेकिन रमजान की मसरूफियत और कुछ दीगर कारणों से सभी के लिए इस माह में अजमेर शरीफ जाना मुमकिन नहीं है। ऐसे सभी लोगों के लिए धर्मयात्रा में हमारी यह प्रस्तुति खास तोहफा है।
दरगाह अजमेर शरीफ का भारत में बड़ा महत्व है। खास बात यह भी है कि ख्वाजा पर हर धर्म के लोगों का विश्वास है। यहाँ आने वाले जायरीन चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, ख्वाजा के दर पर दस्तक देने के बाद उनके जहन में सिर्फ अकीदा ही बाकी रहता है। दरगाह अजमेर डॉट काम चलाने वाले हमीद साहब कहते हैं कि गरीब नवाज का का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि लोग यहाँ खिंचे चले आते हैं। यहाँ आकर लोगों को रूहानी सुकून मिलता है।
दरगाह अजमेर शरीफ का भारत में बड़ा महत्व है। खास बात यह भी है कि ख्वाजा पर हर धर्म के लोगों का विश्वास है। यहाँ आने वाले जायरीन चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, ख्वाजा के दर पर दस्तक देने के बाद उनके जहन में सिर्फ अकीदा ही बाकी रहता है। दरगाह अजमेर डॉट काम चलाने वाले हमीद साहब कहते हैं कि गरीब नवाज का का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि लोग यहाँ खिंचे चले आते हैं। यहाँ आकर लोगों को रूहानी सुकून मिलता है।
भारत में इस्लाम के साथ ही सूफी मत की शुरुआत हुई थी। सूफी संत एक ईश्वरवाद पर विश्वास रखते थे...ये सभी धार्मिक आडंबरों से ऊपर अल्लाह को अपना सब कुछ समर्पित कर देते थे। ये धार्मिक सहिष्णुता, उदारवाद, प्रेम और भाईचारे पर बल देते थे। इन्हीं में से एक थे हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह।
ख्वाजा साहब का जन्म ईरान में हुआ था अपने जीवन के कुछ पड़ाव वहाँ बिताने के बाद वे हिन्दुस्तान आ गए। एक बार बादशाह अकबर ने इनकी दरगाह पर पुत्र प्राप्ति के लिए मन्नत माँगी थी। ख्वाजा साहब की दुआ से बादशाह अकबर को पुत्र की प्राप्ति हुई। खुशी के इस मौके पर ख्वाजा साहब का शुक्रिया अदा करने के लिए अकबर बादशाह ने आमेर से अजमेर शरीफ तक पैदल ख्वाजा के दर पर दस्तक दी थी...
तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है...यहाँ ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है। दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बेहद खूबसूरत है। इसका कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहाँगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चाँदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहाँ कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।
धार्मिक सद्भाव की मिसाल- धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले लोगों को गरीब नवाज की दरगाह से सबक लेना चाहिए...ख्वाजा के दर पर हिन्दू हों या मुस्लिम या किसी अन्य धर्म को मानने वाले, सभी जियारत करने आते हैं। यहाँ का मुख्य पर्व उर्स कहलाता है जो इस्लाम कैलेंडर के रजब माह की पहली से छठी तारीख तक मनाया जाता है। उर्स की शुरुआत बाबा की मजार पर हिन्दू परिवार द्वारा चादर चढ़ाने के बाद ही होती है।
ख्वाजा साहब का जन्म ईरान में हुआ था अपने जीवन के कुछ पड़ाव वहाँ बिताने के बाद वे हिन्दुस्तान आ गए। एक बार बादशाह अकबर ने इनकी दरगाह पर पुत्र प्राप्ति के लिए मन्नत माँगी थी। ख्वाजा साहब की दुआ से बादशाह अकबर को पुत्र की प्राप्ति हुई। खुशी के इस मौके पर ख्वाजा साहब का शुक्रिया अदा करने के लिए अकबर बादशाह ने आमेर से अजमेर शरीफ तक पैदल ख्वाजा के दर पर दस्तक दी थी...
तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी बेजोड़ है...यहाँ ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम दिखता है। दरगाह का प्रवेश द्वार और गुंबद बेहद खूबसूरत है। इसका कुछ भाग अकबर ने तो कुछ जहाँगीर ने पूरा करवाया था। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चाँदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहाँ कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।
धार्मिक सद्भाव की मिसाल- धर्म के नाम पर नफरत फैलाने वाले लोगों को गरीब नवाज की दरगाह से सबक लेना चाहिए...ख्वाजा के दर पर हिन्दू हों या मुस्लिम या किसी अन्य धर्म को मानने वाले, सभी जियारत करने आते हैं। यहाँ का मुख्य पर्व उर्स कहलाता है जो इस्लाम कैलेंडर के रजब माह की पहली से छठी तारीख तक मनाया जाता है। उर्स की शुरुआत बाबा की मजार पर हिन्दू परिवार द्वारा चादर चढ़ाने के बाद ही होती है।
देग का इतिहास- दरगाह के बरामदे में दो बड़ी देग रखी हुई हैं...इन देगों को बादशाह अकबर और जहाँगीर ने चढ़ाया था। तब से लेकर आज तक इन देगों में काजू, बादाम, पिस्ता, इलायची, केसर के साथ चावल पकाया जाता है और गरीबों में बाँटा जाता है।
कैसे जाएँ- दरगाह अजमेर शरीफ राजस्थान के अजमेर शहर में स्थित है। यह शहर सड़क, रेल, वायु परिवहन द्वारा शेष देश से जुड़ा हुआ है। यदि आप विदेश में रहते हैं या फिर यहाँ से जुड़ी ज्यादा जानकारी चाहते हैं तो दरगाह अजमेर डॉट कॉम या राजस्थान पर्यटन विभाग से संपर्क कर सकते हैं।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें- 09311242802 या swamijinoida@gmail.com
कैसे जाएँ- दरगाह अजमेर शरीफ राजस्थान के अजमेर शहर में स्थित है। यह शहर सड़क, रेल, वायु परिवहन द्वारा शेष देश से जुड़ा हुआ है। यदि आप विदेश में रहते हैं या फिर यहाँ से जुड़ी ज्यादा जानकारी चाहते हैं तो दरगाह अजमेर डॉट कॉम या राजस्थान पर्यटन विभाग से संपर्क कर सकते हैं।
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